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Tuesday, February 10, 2015

क्या केजरीवाल की जीत केन्द्र सरकार की नीतियों के खिलाफ आम आदमी का राजनीतिक विकल्प हो सकता है ?

क्या केजरीवाल की जीत केन्द्र सरकार की नीतियों के खिलाफ
आम आदमी का राजनीतिक विकल्प हो सकता है ?

दिल्ली चुनाव सम्पन्न हो गया, वैसे इसका भूत अभी कुछ दिन रहेगा. कई तरह के बहसों का दौर चालू है. इस चुनाव परिणाम का एक दिलचस्प पहलू मैंने देखा कि कांग्रेस तो साफ हो गई, लेकिन भाजपा की हार और आम अदमी ! पार्टी की जीत से वैसे राजनीतिक दल के कार्यकर्ता (वाम दलों समेत) और समर्थक भी काफी खुश हैं जो ना कांग्रे्रस के साथ थे और ना ही भाजपा के साथ, उनका खुद का भी सुपड़ा साफ हो गया फिर भी उन्हें लग रहा है कि यह उनकी ही जीत है क्योंकि उनके हाथ इसके अलावा और कुछ भी नहीं लगा. यह मुझे हास्यास्पद और बचकाना लगा. इसलिए कि सत्ता से असंतुष्ट होकर उसके विरोध का मतलब यह नहीं कि आप अपने खुद के अस्तित्व, विचारों और सिद्वांतो से समझौता कर लें. क्योंकि यदि आप ऐसा करते हैं तो इसका मतलब है कि आप जिस रास्ते पर चल रहे थे वह भी गलत था. हाॅं इसे आप अवसरवादिता कह सकते हैं या जवाब देने के लिए इसकी गंभीर सैद्वांतिक विश्लेषण कर सकते हैं.............जो अक्सर आम जनता की समझ से परे होता है.............

हमारे यहां एक बीमारी है कि हम अपने पक्ष में परिणाम आने से तुरन्त उत्साहीत हो जाते हैं और परिणाम आशा के अनुरूप नहीं आने पर तुरन्त निराश भी हो जाते हैं. लेकिन दिल्ली चुनाव के बाद जिस तरह आम आदमी ! पार्टी के नेता संयमित जवाब दे रहे हैं वहीं भाजपा के नेताओं द्वारा भी अपनी हार को स्वीकार करते हुए केजरीवाल को         बधाई दी गई ! यह लोकतंत्र ! के लिए शुभ संकेत हैं क्योंकि चुनाव के दौरान खासकर सोशल साईटों और समाचार चैनलोें के बहसों में जिस तरह से इनके समर्थकों द्वारा एक दूसरों पर अमर्यादित टिपण्णीयां की जा रही थी वह स्वस्थ्य लोकतंत्र के सेहत व स्वच्छ राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं था. लेकिन परिणाम के बाद नेताओं द्वारा दी जा रही प्रतिक्रियायें स्वागतयोग्य है. प्रधानमंत्री ने केजरीवाल को चाय का न्योता भी दिया है और उम्मीद है केजरीवाल चाय क्या खाना पर भी जायेंगे और उनसे दिल्ली के विकास पर चर्चा भी करेंगे. यक्ष प्रश्न यहीं से शुरू होता है............कि चर्चा के केन्द्र में क्या रहेगा ? आम आदमी! या नीतियां !

खैर इन बहसों के बीच मेरे मन में एक बात आयी कि क्या अब दिल्ली से केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के लिए मुद्दे तय करेंगे ? क्या ये मुद्दे देश के आम आदमी के वैसे बुनियादी मुद्दे होंगे जिसके चलते केन्द्र की कांग्रेसनीत् यूपीए 2 की सरकार के प्रति लोगों में भारी रोष पनपा और लोगों ने विकल्प के तौर पर भाजपा गठबंधन को चुना. बहरहाल अभी उत्तर प्रदेश, बिहार, प0 बंगाल जैसे बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं जहां भाजपा यह भरसक प्रयास करेगी कि वह उन राज्यों में बहुमत की सरकार बनाकर लोकसभा की तरह राज्यसभा में भी अपना बहुमत कायम करे. वहीं विपक्षी दल भी प्रयास करेंगे कि भाजपा के रथ को इन बड़े राज्यों में रोका जाय. इन राज्यों के लिए मुख्य विपक्षी दल हैं, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल युनाईटेड, कांग्रेस, वाम दल और अन्य छोटे व इनके सहयोगी दल. इन राज्यों में आम आदमी ! पार्टी क्या करेगी अभी यह भविष्य के गर्त में है और केजरीवाल इसका जवाब भी अभी नहीं देंगे. इसके साथ ही जो लोग इस जुमले को अलाप रहे हैं कि जो देश का मूड है वह दिल्ली का मूड है और जो दिल्ली का मूड है वह देश का, इसका जवाब भी इन राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद ही आयेगा.

टि.वी. चैनलों में राजनीतिक विश्लेषक, पत्रकार बंधू, राजनीतिक हस्तियांे द्वारा इन बातों पर चर्चा की जा रही है कि दिल्ली चुनाव में भाजपा के अहंकार को करारी हार मिली है और यह साफ हो गया है कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव के दौरान जिन अच्छे दिनांे, काला धन को वापस लाने और बेहतर शासन का वादा किया था, उसपर वह खरी नहीं उतरी है और इन 9 महीनो में सरकार से लोगों का मोह भंग हुआ है. वहीं भाजपा व उसके सहयोगी जनसंगठनों के कुछ नेताओं ! द्वारा हाल के दिनो में जिस तरह से संवेदनशील मुद्दों पर गैर जिम्मेवाराना व आपसी सौहार्द बिगाड़ने वाले भड़काऊ बयान दिये गये या दिये जा रहे हंै, उसने भी भाजपा के तथाकथित विकास के एजेंडे पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर उसके पीछे छिपे असली एजेंडो को ही सामने लाने का काम किया है. वैसे यहां यह भी दिलचस्प है कि भाजपा आक्रामक तरीकों से अपने विकास के एजेंडो को उन्हीं पुरानी नीतियों के द्वारा लागू करने का प्रयास कर रही है जिसपर यूपीए 2 की सरकार चलती रही और देश की अर्थव्यवस्था डगमगाती रही. इसलिए अभी यह भविष्य तय करेगा कि आने वाले दिनों में विकास किसका हुआ, कैसे हुआ और उस विकास में इस देश के आम आदमी, किसान, मजदूरों ने कहां तक सफर तय किया. लेकिन क्या यह मान लिया जाय कि केजरीवाल, यूपीए 2 या फिर अब भाजपा के विकास की नीतियों से अलग ऐसी जनपक्षीय नीतियां लायेंगे जिनसे दिल्ली के उन तमाम लोगों का विकास हो पायेगा जिनकी दहलीज तक अब तक सिर्फ वादे और घोषनायें ही पहुंच सकी है और क्या यह पूरे देश के लिए विकास का कोई नया माॅडल बन सकेगा ? मैं यह इसलिए कह रहा हूॅं कि दिल्ली चुनाव को जिस तरह से पेश किया गया वह ऐसा था मानो इस देश में आम आदमी ! पार्टी, भाजपा और कांग्रेस के अलावा कोई राजनीतिक दल अस्तित्व में है ही नहीं या वे अब इतिहास के गर्त में चले गये.

कांग्रेस को लोकसभा चुनावों और उसके बाद विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में मिली स्वाभाविक करारी हार के बाद उसे एक हारे हुए राजा की तरह पेश किया जा रहा है (यह ठीक भी है क्योंकि अब चाहे राहुल हो या प्रियंका इनकी भूमिका और प्रासंगिकता पर भी चर्चा होगी ही ). भाजपा को कांग्रेस की हार के बाद एक नये विकल्प के तौर पर पेश किया गया और अब भाजपा के प्रति उपज रहे असंतोष का समाधान आम आदमी ! पार्टी के रूप में दिखाया जा रहा है. लेकिन ऐसा दिखाने वाले कौन लोग हैं ? इसपर भी तो चर्चा होनी ही चाहिए भले ही यह मुख्य धारा की चर्चा का विषय न बने. हाॅं इसपर हर वास्तविक आम आदमी जरूर खुश है (जहां तक सभी समाचार चैनलों की पहुॅच है) क्योंकि उसे अपने हर दुख-तकलीफों का समाधान चाहिए वह चाहे जहां से भी आये. लेकिन क्या इसकी संभावना नहीं है कि कहीं वह फिर खुद को ठगा हुआ महसूस करे. अब मैं यहां किसी से किसी की तुलना नहीं करूंगा. लेकिन केजरीवाल की आम आदमी! पार्टी ने हर मोर्चें पर भाजपा को मात देने का काम किया है, खासकर खर्चीले चुनाव प्रचार का. अब वैसे दल जो इसका रोना रोते थे कि काॅरपोरेट मिडीया उनकी बातों को, उनके मुद्दों को नजरअंदाज कर उन्हें हाशिए पर डाल रहे हंै तो फिर मेरे मित्रों इस काॅरपोरेट मिडीया को कौन सी बीमारी लग गई कि उसने आम आदमी! पार्टी को इतना तव्वजो देना शुरू कर दिया.........मसलन यदि कोई राष्ट्रीय दल दिल्ली में आज लाखों की रैली भी कर दे तो यह समाचार चैनलों के मुख्य धारा के लिए कोई समाचार नहीं रहेगा लेकिन केजरीवाल को छींक भी आई तो यह मुख्य समाचार बन जायेगा..........

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