भूख के विरूद्ध भात के लिए संघर्ष
क्या आप जानते हैं ?
कि भारत के गांवों में पैदा होने वाले हर 10 बच्चों में 8 कम वजन के होते हैं, हर 10 महिलाओं में से 6 के शरीर में खून की कमी होती है और सबसे ज्यादा कुपोषित और कमपोषित लोगांे की तादाद भारत में पाई जाती है।
आखिर ऐसा क्यों हैं ? क्या इसलिए कि भारत में इतना खाद्यान्न नहीं है, इतने संसाधन नहीं हैं जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि लोग भूखे और कुपोषित नहीं रहें ? जी नहीं, बिल्कुल नहीं ! बल्कि ठीक इससे उलट, भारत में इतना पर्याप्त खाद्यान्न मौजूद है कि वह अपनी जनता को ठीक तरह से खिला सकता है।
1 मई 2012 को सरकारी गोदामों में 7 करोड़ 70 लाख टन का विराट गेंहू-चावल का भंडार अटा पड़ा था । मौजूदा स्तर से देखा जाए तो पूरे वर्ष भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के वर्तमान रुप में वितरण के लिए 5 करोड़ टन अनाज की जरुरत होती है। इस तरह यह आइने की तरह साफ है कि अगर सरकार जनता के और अधिक हिस्से को शामिल करते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सबके लिए कर दे तो भी उसके पास आवंटन के लिए पर्याप्त खाद्यान्न मौजूद है।
मगर इस सरकार को अनाज का सड़कर बर्बाद होना या चूहों के द्वारा खाया जाना मंजूर है। निजी गोदामों के मालिकों को मदद पहंुचाते हुए अनाज के भंडारण पर खूब सारा धन खर्च करना मंजूर है। बड़े व्यापारियों को मुनाफे कमाने में मदद देते हुए विदेशी जानवरों को खिलाने के लिए अनाज का निर्यात मंजूर है-मगर सभी भारत वासियों को खाने का अधिकार देना कबूल नहीं है।
सरकार बीपीएल@एपीएल की धोखाधड़ीपूर्ण उन श्रेणियों को बनाये रखने पर अड़ी है जो भारत के गरीबों व वंचितों को दो हिस्सों में बांटती है। केवल बीपीएल कार्ड धारक ही राशन की दुकानों से सस्ती दरों पर अनाज ले सकता है। ये बात सभी जानते हैं कि भारत में रहने वाले रईसों को घटी हुयी दरों पर अनाज खरीदने की जरुरत नहीं है। मगर सरकार कौन गरीबहै, कौन नहीं, किस राज्य में कितने गरीब है आदि तय करने कि लिए धोखेबाजी के तरीके अपनाती है और इस तरह इस देश की जनता के भारी बहुमत को सस्ते अनाज के अधिकार से वंचित कर देती है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि 2010-11 की कीमतों पर देहाती भारत में जो 26 रुपये रोज एवं शहरी भारत में 32 रुपया रोज से ज्यादा कमाते हैं उन्हें गरीब नहीं माना जा सकता और इसलिए वे सस्ती दरों पर अनाज प्राप्त नहीं कर सकते। नतीजे में हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा बाजार की उंची कीमतों के रहमोकरम पर है। फर्जी गरीबी अनुमानों का असली चेहरा इन उदाहरणों से उजागर हो जाता है किः-
61 प्रतिशत अनुसूचित जाति-दलितों
55 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति-आदिवासियों एवं
52 प्रतिशत खेत मजदूरों के पास ना तो बीपीएल कार्ड हैं न अन्त्योदय कार्ड ही हैं।
वर्तमान में 8 राज्यों की सरकारों ने बीपीएल सूची का विस्तार करके, अपने संसाधनों के बलं पर चावल व कुछ राज्यों में गेहूं की कीमत एक या दो रुपया प्रति कि0ग्रा0 करके, अपने राज्यों के लोगो को राहत देने के लिए कुछ कदम उठाये हैं।
मगर चूंकि केंन्द्र सरकार ने इन राज्यों के खाद्यान्न कोटे बढ़ाये नहीं हैं, इसलिए प्रति परिवार अधिकतम खाद्यान्न उपलब्धता आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु में 35 कि0ग्रा0 की बजाए सिर्फ 20 कि0ग्रा0 है। लिहाजा इन राज्यों में भी, बहुसंख्या में परिवारों को अपनी जरूरतों के लायक गेहूं चावल बाजार की मंहगी कीमतों पर ही खरीदना पड़ता है।
ऐसे देश में जहां जनता का विराट बहुमत एैसे असंगठित क्षेत्र में काम करता हैं जहां न तो कोई निश्चित आमदनी है न महगाई से बचाव की सुरक्षा है, जहां असंगठित मजदूरों की द’ाा को जानने के लिए बनाया गया खुद सरकारी आयोग 77 प्रतिशत आबादी के 20 रुपये या उससे भी कम रोजाना खर्च पर जिंदगी काटने की सच्चाई से रूबरू कराता है, वहां स्पष्टतः बीपीएल-एपीएल के नाम पर विभाजित या दूसरे शब्दों में लक्ष्यबद्ध प्रणाली अन्यायपूर्ण जनविरोधी नीति है।
केन्द्र सरकार जो नया कानून लाने जा रही है वह गरीबों के बीपीएल-एपीएल श्रेणियों में विभाजन को एपीएल को जनरल श्रेणी और बीपीएल को प्राथमिक श्रेणी का नाम देकर कानूनी दर्जा प्रदान करना चाहता है। यह कानून अन्त्येादय श्रेणी को खत्म करने का प्रावधान करता है। अन्त्येादय और बीपीएल दोनो तरह के कार्ड धारकों को चावल के लिए 3रु0 एवं गेहूं के लिए 2 रू0 प्रति किलो देने होंगे। मगर देहाती इलाके के 100 में से 54 परिवार इस बीपीएल की सूची से स्वतः वंचित हो जायेंगें। शहरी भारत के 100 परिवारों मेें से 72 स्वतः वंचित हो जायेंगें। इस प्रकार यदि यह कानून बन जाता है तो हमारी जनता का एक विशाल बहुमत सस्ता अनाज पाने के अधिकार से कानूनी रूप से वंचित कर दिया जायेगा।
अन्याय को कानूनी जामा पहनाने वाले इस तथाकथित खाद्य सुरक्षा कानून को बदला जाना चाहिए। यदि सारे परिवारों को प्रति परिवार 35 किलो अनाज दो रुपया किलो की दर से देते हुये उन्हें सस्ता खाद्यान्न हासिल करने का अधिकार प्रदान कर दिया जाता है तो सरकार को अपने मौजूदा खाद्य बजट में 30 से 40 हजार करोड़ रुपये की सालाना वृद्वि करनी पड़ेगी। सरकार कहती है कि इसके लिए उसके पास पैसा नहीं। जबकि अकेले इस वर्ष में उसने समाज के सम्पन्न और समृद्ध तबकों को अनेक किस्मों में 5 लाख करोड़ रूपयों से ज्यादा की टैक्स छूटें व रियायतें दी हैं। अमीरों की मदद के लिए अपना खजाना खोलते वक्त इसे कोई चिंता नहीं होती मगर गरीबों के लिए इसके पास कोई पैसा नहीं है। ऐसी सरकार पर लानत है।
शशिकान्त
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