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Friday, June 27, 2014

आपातकाल के लौटते साए


June 28, 2014
सीताराम येचुरी

उन्तालीस साल पहले, 25 जून 1975 को देश में ''आंतरिक इमरजेंसी'' घोषित की गई थी। यह कदम केंद्र में उस समय सत्तारूढ़, श्रीमती इंदिरा गांधी की कांग्रेसी सरकार ने उठाया था। अगली सुबह का सूरज निकलने के साथ ही हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया था। इस तरह, स्वतंत्र भारत के इतिहास के जनतंत्र के सबसे काले अध्याय की शुरूआत हुई थी। हमारे देश की जनता अनथक संघर्ष के बाद, 1977 के शुरू में जब श्रीमती गांधी चुनाव कराने के लिए मजबूर हो गईं, इस इमर्जेंसी निजाम को शिकस्त दी जा सकी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कांगे्रस पार्टी की भारी हार हुई और केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। बहरहाल, इमर्जेंसी के खिलाफ लडऩे के लिए राजनीतिक ताकतों का जैसा जमावड़ा हुआ था, जिसमें से कुछ पार्टियां ''जनता पार्टी'' के नाम से सरकार बनाने के लिए एकजुट हुई थीं, उसकी प्रकृति को देखते हुए यह अस्थायी ही हो सकता था।


जनता पार्टी अपने जन्म से ही अंदरूनी खींचतान तथा भीतरी झगड़ों से ग्रस्त तो रही ही थी, इसके अलावा वह सारत: उन्हीं वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करती थी, जिनका प्रतिनिधित्व कांग्रेस पार्टी करती थी और इसलिए वह जनता की आकांक्षाएं पूरी करने में असमर्थ थी। इसके चलते भी उसके खिलाफ जनता के बीच भारी असंतोष पैदा हुआ था। याद रहे कि इमरजेंसी  विरोधी संघर्ष ने जनता के बीच भारी उम्मीदें जगाई थीं। बेशक, इतिहास से समुचित सबक सीखने के पहलू से यह सब भी महत्वपूर्ण है। बहरहाल, यह एक अलग ही मुद्दा है। 18 महीने के बाद इमर्जेंसी की पराजय, आधुनिक भारत के विकास में इस अर्थ में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर थी, जनता के इस संघर्ष ने हमारे देश में जनतंत्र की जड़ें और मजबूत कर दीं और यह वह आधार है जिसके बल पर भविष्य में तानाशाही के उदय का मुकाबला किया जा सकता है।

फिर भी आत्मतुष्टï होकर बैठ जाना और यह मानने लगना मूर्खता ही होगी कि 1977 में आंतरिक इमर्जेंसी की शिकस्त के साथ तानाशाही का खतरा हमेशा के लिए खत्म हो गया। इस संदर्भ में यह याद दिलाना जरूरी है कि जनता पार्टी का जन्म ही अस्थिरता के साथ हुआ था क्योंकि आरएसएस के तत्कालीन राजनीतिक मोर्चे, जनसंघ ने जनता पार्टी में अपना विलय कर लिया था। एक ओर तो जनसंघ का इस तरह विलय हो गया और दूसरी ओर उसके सदस्य आरएसएस के प्रचारक बने हुए थे तथा उसके लिए काम कर रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि जनता पार्टी के अंदर ही इस तरह की ''दुहरी सदस्यता'' खत्म किए जाने की मांग उठी और यह विवाद अंतत: सरकार के ही गिर जाने तक पहुंचा।

इमरजेंसी  की 39वीं सालगिरह के मौके पर आज, इसे याद रखना इसलिए जरूरी है कि अब केंद्र में सत्ता आरएसएस/भाजपा की नयी सरकार के हाथ में आ गई है। इस सिलसिले में यह याद रखना जरूरी है कि कोई आवश्यक नहीं है कि तानाशाही की प्रवृत्तियां दोबारा ठीक उसी रूप में सामने आएं, जिस रूप में इमरजेंसी  के दौर में सामने आई थीं। ऐसी प्रवृत्तियां कई-कई रूपों में सामने आ सकती हैं और इनमें से कुछ के काले साए तो मौजूदा नयी सरकार के सत्ता संभालने के बाद से लंबे होने भी शुरू हो गए हैं।

तानाशाही की प्रवृत्तियां सामान्यत: तभी जोर पकड़ती हैं, जब संवैधानिक व्यवस्था कमजोर हो जाती है। हमारे गणतांत्रिक संविधान की धुरी यह है कि अंतत: संप्रभुता हमारे देश की जनता—'हम भारत के लोग'—के हाथों में है। इस संप्रभुता का व्यवहार होता है, जनता द्वारा विधायिका के लिए अपने प्रतिनिधि चुने जाने के जरिए। इस प्रतिनिधित्व का हर पांच साल पर नवीकरण किया जाता है। जनता के प्रतिनिधियों की संसद, सरकार के काम-काज पर न•ार रखती है और उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करती है। इस तरह सरकार, संसद के प्रति जवाबदेह होती है और संसद, जनता के प्रति जवाबदेह होती है। जब इस जवाबदेही की शृंखला को जान-बूझकर तोड़ा जाता है या कमजोर किया जाता है, इसका नतीजा जनतंत्र के कमजोर होने और उसी अनुपात में तानाशाही के उभार के रूप में सामने आता है।

जब से मोदी सरकार ने सत्ता संभाली है, जवाबदेही की इस शृंखला के कमजोर किए जाने की मिसालें एक के बाद एक सामने आ रही हैं। केंद्रीय कैबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी के बजाय, इस बार तो आधिकारिक रूप से प्रधानमंत्री को ही सभी, 'महत्वपूर्ण नीतिगत मामलोंÓ में निर्णय लेने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। इस तरह, मंत्रिमंडल में सदस्यों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी को और इस तरह अन्य मंत्रियों की जवाबदेही को भी कमजोर किया गया है। इसी प्रकार, विभिन्न विभागों के मुख्य सचिवों को प्रधानमंत्री ने सीधे बुलाया और उनसे अपने ही प्रति जवाबदेही का तकाजा किया। यह सामूहिक जिम्मेदारी के तहत, जिस मंत्री को जो जिम्मा सौंपा गया है, उससे संंबंधित विभाग में मंत्री की स्वायत्तता को सचेत रूप से कमजोर करने के सिवा और कुछ नहीं है।

इसी तरह, संसद का सत्र जब सिर पर था, अध्यादेशों का सहारा लिया गया और इस तरह संसद में जनतांत्रिक बहस से और संसद के प्रति जवाबदेही से ही बचने का रास्ता अपनाया गया है। कुुछ खास व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने का रास्ता बनाने के लिए भी अध्यादेश का सहारा लिया गया है। ये प्रवृत्तियां हमारे संविधान से निकलने वाली संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था के बजाय, राष्टï्रपति प्रणाली के शासन की ओर बढ़े जाने की ओर ही इशारे करती हैं। संसदीय जनतंत्र को कमजोर करनेे वाली ये प्रवृत्तियां, तानाशाही का रास्ता बनाती हैं।

एक बार फिर संसद की वैधता तथा जवाबदेही सुनिश्चित करने के उसके अधिकार को कमजोर करते हुए, कार्यपालिका के निर्णयों के ही जरिए डीजल जैसी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों या रेल किराया-भाड़ों में  बढ़ोतरी की गई है। याद रहे कि यह बढ़ोतरी तब की गई है, जब आम बजट और बजट, दोनों ही दो हफ्ते के अंदर-अंदर आने वाले थे और उनकी तारीखें तय की जा चुकी थीं तथा उनका ऐलान भी किया जा चुका था। सच तो यह कि संसद के अगले सत्र का जिस तरह का कार्यक्रम घोषित किया गया है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि बजट सत्र को इस तरह चलाया जाने वाला है, जिससे विभिन्न मंत्रालयों/विभागों की अनुमोदन मांगों की कोई विस्तृत छानबीन हो ही नहीं सके। सामान्यत: इस विस्तृत छानबीन का काम संसदीय स्थायी समितियां संभालती हैं और यह काम बजट सत्र के दौरान सामान्य रूप से होने वाले तीन सप्ताह के अवकाश के दौरान किया जाता है। लेकिन, आम चुनाव होने के बाद से अभी तक तो इन कमेटियों का गठन भी नहीं हुआ है। इसलिए, इस बार के बजट के मामले में ऐसी छानबीन की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यह संसद के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने की एक महत्वपूर्ण संभावना का रास्ता बंद करता है।

Courtsey : Face Book.

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