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Thursday, November 10, 2011

नैतिकता, भ्रष्टाचार, समाज और राजसत्ता


नैतिकता, भ्रष्टाचार, समाज और राजसत्ता : Shashikant Singh

अभी हमारे देश में भ्रष्टाचार पर काफी चर्चा हो रही है. आम लोगों और बुद्धिजीवियों का मानना है कि भ्रष्टाचार आज विकराल रूप ले चुका है और उसे रोकना ही चाहिए. भ्रष्टाचार के खिलाफ तथाकथित जंग में देश के समाजसेवी, धर्मसेवी, कई राजनेता और आम लोग जुड़े हुए हैं. दिलचस्प बात तो यह है कि जो लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में शामिल हैं, उनपर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाये जा रहें हैं और जो अब तक भ्रष्टाचार पर गला फाड़ कर चिल्ला रहे थे, उन्हें अब सफाई देनी पड़ रही है. देश के कई प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं पर सीधे तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये जा रहें हैं.
खैर मसला चाहे जो भी हो, यह विषय आज पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो चुकी है, और लोगों को इन बातों पर अवश्य विचार करना चाहिए. यहां बिना किसी दर्शनशास्त्र में गये मैं एक बात पूछना चाहता हॅू कि हम जिस भ्रष्टाचार की बात कर रहें हैं, माफ किजीएगा, यहां यह बताना जरूरी है कि भ्रष्टाचार के विभिन्न स्वरूप हैं, उसके विभिन्न आयाम हैं, लेकिन हम आज सिर्फ सत्ता मेें नासूर की तरह चुभ चुके भ्रष्टाचार पर ही ज्यादा बोल रहे हैं. इसलिए यहां यह जानना जरूरी है कि आखिर भ्रष्टाचार की उत्पत्ति हुई कब और वह आयी कहां से. यदि यह सवाल एक बच्चे से पूछ जाए तो हो सकता है वह इसका जवाब दे, चाॅंंंद से ! यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि भ्रष्टाचार क्या आज जितना है वह पहले नहीं था ? हमें जरूर इन सवालों का जवाब तलाशना चाहिए. दरअसल भ्रष्टाचार मानवीय सभयता के विकास में जबसे परिवार, निजी संम्पति और राजसत्ता की उत्पत्ति हुई है, तब से हमारे समाज में कमोबेश मौजूद रहा है. इसके हजारों तथ्यगत जवाब मिल जायेंगे. हाॅं जब आदिमानव इस धरती पर निवास करते थे तब यह शायद कम था लेकिन हो सकता है तब भी मार कर लाये गये शिकार में कमजोरांे की हिस्सेदारी को लेकर सहज मतभेद होते होंगे और उन्हें भोजन से वंचित रहना पड़ता होगा. हम इसे आदि मानव काल का शिशु भ्रष्टाचार कह सकते हैं.

बाद में जब परिवार फिर उसके बाद निजी सम्पत्ति और फिर राजसत्ता का जन्म हुआ तो यही शिशु व्यस्क हो चुका था. उसका भी सभ्यता के विकास के साथ बढ़ना स्वाभाविक था. मैं यह बात इसलिए कह रहां हूंॅं कि भ्रष्टाचार का मानव स्वाभाव के साथ एक अभिन्न रिस्ता है, यह उसके चरित्र का ही एक स्वरूप है, यह उससे अलग कहीं नहीं है और ना ही रहेगा. यानि भ्रष्टाचार मनुष्य का एक चारित्रिक गुण है जो कहीं ज्यादा तो कहीं कम लेकिन कमोबेश इसकी मौजूदगी रहती है. लेकिन यहां एक सच्चाई यह भी है कि दुनियां में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इससे प्रभावित नहीं रहते हैं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उनके अन्दर भी इसकी मौजूदगी रहती है. इसे हम युं समझ सकते हैं. मान लिया जाए एक सन्यासी जो तमाम भोग विलास से कोसो दूर है, वह यदि मौन व्रत रखे हुए है और कहीं से गुजर रहा है. अब यदि उसके आंखों के सामने कोई गलत काम हो रहा है और वह सन्यासी चुपचाप उसे देखते हुए वहां से गुजर जाता है तो इसे क्या कहेंगे ? सीधे तौर पर तो वह उस गलत काम में शामिल नहीं है लेकिन उसका चुप रहना कहीं न कहीं गलत काम को बढ़ावा देने का ही काम किया.................ऐसा कई बार कई जगहों पर देखने को मिल जाता है.......................अभी हाल में अन्ना हजारे के आंदोलन में जो घटनाक्रम देखने को मिला और उनके साथियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे..................हो सकता है यह राजनीति से प्रेरित हो लेकिन ऐसे समय में अन्ना का अचानक मौन व्रत कर बिलकुल चुप हो जाना, इसे क्या कहा जाएगा. यह महाभारत के उस धृतराष्ट्र वाली स्थिति हो गई जो सबकुछ जानते हुए भी मौन रहता है और उसके मौन ने महाभारत जैसी एक महायुद्ध को जन्म दे दिया.
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इतिहास के पन्नों में ऐस कई उदाहरण हैं. हम ऐसे कई राजाओं-महाराजाओं को इतिहास में उनकी क्रूरता, उनकी लूट और हवस के लिए जानते हैं. तो फिर उसे समय के लूट का मतलब क्या था ? यह सवाल बिलकुल उसी तरह है जैस कोई पूछे कि भ्रष्टाचार है क्या ? आज के परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि किसी काम के लिए घूस लेना, सरकारी व सार्वजनिक खजानों का अपने हित में इस्तेमाल करना, किसी काम के एवज में पैस लेना, देना इत्यादि.लेकिन यह तो समाज में रोज-बरोज का घटनाक्रम है, हाॅं, इसकी मात्रा या गलत की गुजाईश कहीं कम है तो कहीं ज्यादा. दुनियां के तमाम धार्मिक इतिहासों को उठाकर देखा जा सकता है, उस समय के समाज को समझा जा सकता है. ईसा मसीह को इसलिए सूली पर चढ़ाया गया कि उन्होंने उस समय के समाज में हो रहे अत्याचार और लूट के खिलाफ अपनी आवाज उठाई. यह लगभग 2 हजार वर्ष पहले का घटनाक्रम है............. रामायण में भरत को सिहांसन पर बैठाने के लिए राम को वनवास जाना पड़ा......................सिकंदर को हम सिंकदर महान कहते हैं लेकिन उसने दुनियां पर राज करने के लिए ना जाने कितने लोगों की बली चढ़ाई होगी.................हमारे देश को ही कभी सोने की चिडि़यां कहा जाता था और उसे लूटने के लिए कभी हून, कभी मंगोल, कभी मुगल लगातार इस देश पर आक्रमण कर इसे लूटते रहें. बाद में अग्रेजों ने लूटा और अब हमारे देश के अन्दर की लूटेरी ताकतें इसे लूट रहीं हैं. यानी यह लूट का सिलसिला तो सदियों से चला आ रहा है. आज अमेरिका समेत पूरे युरोपीय देश जिस आर्थिक मंदी से गुजर रहेें हैं उसकी जड़ में भ्रष्टाचार ही तो है. चीन जैसे समाजवादी देश के अन्दर भी भ्रष्टाचार के मामले आते रहते हैं. खैर यह तो बड़े पैमाने पर राजसत्ता में फैला भ्रष्टाचार है जिससे कोई राजसत्ता कभी अछूता नहीं रहा है. हम कह सकते हैं कि जहां राजसत्ता है वहां भ्रष्टाचार की गुजाईश से बचा नहीं जा सकता है. 

लेकिन यह भ्रष्टाचार सिर्फ राजसत्ता में तो नहीं है. राजसत्ता में तो यह समाज के जरिए ही आया क्योंकि राजसत्ता जिनके हाथों में रहती है वे भी तो समाज के ही अंग हैं. एक पिता अपनी लड़की के शादी में चाहता है कि वह कम से कम दहेज दे और लड़के के शादी में चाहता है कि उसे ज्यादा से ज्यादा दहेज मिले...............यह हमारे समाज में फैला एक सामाजिक भ्रष्टाचार का हिस्सा है. हम अपने बच्चों को पास कराने के लिए शिक्षकों के पास पैरवी लेकर जाते हैं, बच्चों को अच्छे स्कूलों-काॅलेंजों में दखिला दिलाने के लिए घूस देते हैं.................यह क्या है ? यह भी सामाजिक स्तर पर ही फैले भ्रष्टाचार का ही एक अभिन्न हिस्सा है...........हमें खुद तो तन्ख्वाह मिलती है 30 हजार लेकिन हम जब अपने यहां काम करने वाले किसी नौकर को रखते हैं तो हम उसे न्युनतम मजदूरी भी नहीं देते हैं...............हम अपने घरों में बाल मजदूरों तक से काम कराने में नहीं हिचकते........हाॅं, हम भ्रष्टाचार पर चिल्लाते जरूर हैं.................इस प्रवृति को क्या कहा जाएगा.........और यह प्रवृति आज किस व्यक्ति के अन्दर नहीं है. बाबा रामदेव का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आचार्य बालकृष्ण को टी.वी. चैनलों पर लोगों से चंदा लेते दिखाया गया और जब रामदेव मैदान से कूद कर भागे तो आचार्य कई दिनों तक लापता रहें.........यह भी सामने आया कि उनका तो पासपोर्ट ही नकली था. बाबा रामदेव के योग शिविर में सामने बैठने वालों को ज्यादा किमत चुकानी पड़ी है और यदि आप गरीब हैं तो आपको सबसे पीछे बैठना होगा. ये हैं आज के सन्यासी..........जो समाज को कुछ देने के लिए समाज से उसकी भरपूर किमत वसूल लेते हैं. जबकि विवेकानन्द ने बहुत साल पहले ही कहा था कि सच्चा सन्यासी वही है जो उन लोगों के पास जाए जिन्हें उनकी जरूरत है, सूदूर गांवों में जहां लोग गरीबी और अशिक्षा में जीवन गुजार रहें हैं. लेकिन आज के सन्यासी हाईटेक हो गयें हैं...................फूल मालाओं से लदे, किमती सिंहासनों पर बैठकर लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते, टी.वी. चैनलों पर प्रवचन देते इन सन्यासियों को यदि उनके प्रवचन की कीमत नहीं दी जाए तो वे अपना मुंह नहीं खोलेंगे...................इसे क्या कह जाएगा ? क्या यह भ्रष्टाचार का एक स्वरूप नहीं है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दुनियां में सभी गलत हैं और भ्रष्टाचार हर जगह मौजूद ही है, लेकिन आज यह एक सच्चाई है भ्रष्टाचार एक विचारधारा बन चुकी है और हम पर भारी पड़ रही है जिसे हराने के लिए एक महायुद्ध की जरूरत है. लेकिन उस युद्ध की शुरूआत हमें खुद के अन्दर से करना होगी क्योंकि भ्रष्टाचार हमारे द्वारा ही समाज में और फिर विभिन्न माध्यमों से राजनीति और राजसत्ता में जाती है. इसे एक सहज फार्मूला से इसे समझा जा सकता है ःनैतिकता-व्यक्ति-समाज-समाज में प्रभुत्व-सत्ता. इस फार्मूले में भ्रष्टाचार की शुरूआत व्यक्ति से होती है और उसके बाद वाली कड़ी से जुड़ती चली जाती है और फिर उस भ्रष्टाचार का असर वापस व्यक्ति तक आकर फिर वही प्रक्रिया दुहराती जाती है जो निर्वाध चलता रहता है. यह फार्मूला बिलकुल सही इसलिए भी है कि यह सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार की शुरूआत व्यक्ति से होती है. कुछ लोग कहते हैं कि सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है, कुछ लोग अन्य सांसारिक कारकों को इसका जिम्मेवार मानते हैं. पहला तो बिलकुल गलत है. दुनियां में एसी भी सत्ता स्थापित हुई हैं जहां भ्रष्टाचार नगण्य या फिर बिलकुल नहीं रहा है. दूसरा कारण सामाजिक कारणों से जुड़ा है, जैसे आज के उपभोक्तवादी समाज में भ्रष्टाचार की सहज गुंजाईश बनती जाती है और हम उसमें डूबते चले जाते हैं. लेकिन मूल बात यही है कि हमारी व्यक्तिगत ईमानदारी और चरित्र ही यह तय करेगा कि भ्रष्टाचार को हराना है या उससे हारते जाना है. इसलिए भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष की शुरूआत हमें खुद से करनी होगी..........

शशिकान्त

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