इस भयावह आर्थिक गैर बराबरी का जिम्मेवार कौन ?
औक्सफैम एक अन्तर्राष्ट्रीय स्वयसेवी संस्था है जो हर वर्ष जनवरी माह में वैश्विक स्तर पर गरीबी के आंकड़ों का रिपोर्ट पेश करती है. हाल में आई इसकी रिपोर्ट में चैंकाने वाला कुछ भी नहीं बल्कि वास्तविक स्थिति तो इससे भी बदतर हो सकती है. औक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि दुनियां के सबसे धनवान एक प्रतिशत लोग 99 प्रतिशत लोगों से ज्यादा धनवान है. रिपोर्ट के अनुसार दुनियां के 62 सबसे धनी लोगों के पास दुनिया भर के गरीबों की 50 प्रतिशत आबादी के बराबर धन संपदा है. जहां 2010 के बाद इन धनवानों की संपत्ति 500 अरब डाॅलर से बढ़कर 1,760 अरब डाॅलर हो गई वहीं इसी दौर में दुनिया के सबसे गरीब आबादी में से 50 प्रतिशत की संपत्ति 41 प्रतिशत कम हो गई. जहां तक भारत की बात है तो पिछले वर्ष अक्टूबर में जारी क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट के अनुसार भारत के एक प्रतिशत सबसे धनी लोगों के पास देश की कुल संपत्ति में 53 प्रतिशत की हिस्सेदारी है. वहीं सबसे धनी 10 प्रतिशत लोगों के पास यह हिस्सेदारी 73.30 प्रतिशत है. इसका मतलब बिलकुल साफ है कि वर्ष दर वर्ष आर्थिक गैर बराबरी की खाई और चैड़ी होकर धन-संपदा कुछ परिवारों तक सिमटती जा रही है और गरीबी के आंकड़ों में इजाफा हो रहा है.
अब सवाल है कि लगातार बढ़ती इस आर्थिक विषमता के लिए जिम्मेवार कौन है. इसके लिए आर्थिक-राजनीतिक जानकारों के अलग-अलग तर्क हो सकते है लेकिन इतना साफ है कि आज हम विकास के जिस आर्थिक माॅडल के बोझ को ढो रहें हैं उसका नतीजा हमारे सामने है जिसे शर्मनाक कहा जा सकता हैं. संयुक्त राष्ट्र की एक और रिपोर्ट के मुताबिक वर्षं 2014-15 में भारत में करीब 19 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर खड़े थे जो उस समय विश्व की सर्वाधिक संख्या थी.............जबकि हमारी सरकार काॅरपोरेट जगत को करीब 5 लाख करोड़ की छूट केवल टैक्सों के माध्यम से दे रही है. भारत जैसे देश में यह चिन्ता का विषय इसलिए भी है कि हमारी सरकारें रोजपरक शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, रोजगार गांरटी के नाम पर अपने बजट में नाम मात्र का हिस्सा देती है बल्कि गरीबों को राहत देने वाली कुछ सेवाओं में तो कमी ही की जा रही है. सवाल सिर्फ बजट के प्रावधानों का नहीं बल्कि मानसिकता और विचारों का भी है. गरीबी उन्मूलन के नाम पर ढोंग करते हुए हमारे नीति निर्धारक जमात बड़ी संख्या में मिल जायेंगे. हमारे देश में गरीबी की परिभाषा और उसका आर्थिक आधार ही हमारे नीति निर्धारकों के मानसिक दिवालियापन और गरीबों को तुक्ष समझने की प्रवृति को ही दर्शाता है. किसानों की बढ़ती आत्महत्या, उपेक्षापूर्ण रवैया के कारण कृषि से होता मोहभंग, रोजगार के अभाव में शहरों की ओर पलायन की बाढ़ से शहरों में सस्ते श्रम और बेरोजगारों की भीड़ यह सब वर्तमान आर्थिक नीतियों की देन है जिसे हम नवउदारवादी आर्थिक नीतियां कहते हैं जिसका कि वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बाद अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी खुला समर्थन है. बल्कि नरेन्द्र मोदी सरकार तो इन नीतियों को ऐसे लागू कर रही है जैसे की किसी सवारी का ट्रेन छूट रहा हो. आज हमारी देश की स्थिति यह है कि ग्रामीण भारत का 80 प्रतिशत आबादी और शहरी भारत का 70 प्रतिशरत आबादी अत्यन्त गरीब है. शहरों में झुग्गी झोपड़ियों की बढ़ती बाढ़ और गांवों में फसलों से सूना होता खेत हमारे नीति निर्धारकों को नहीं दिखता. एक किसान 5 हजार कर्ज के कारण आत्महत्या कर लेता है वहीं बैंको के करोड़ों अरबों डकारने वाले हजारों बड़े डिफाल्टर है जिनपर बैंक कोई कार्यवाई नहीं करते क्योंकि ये बड़े लोग है. रिजर्व बैंक के गर्वनर रघुराजन को भी कहना पड़ा कि हमारे देश में कानून सिर्फ गरीबों के लिए है बड़े लोग कानून से बच निकलते है.
यह मांग लगातार उठ रही है कि सरकार न्यूनतम मजदूरी की दर कम से कम 15 हजार करे, सबको जनवितरण प्रणाली के साथ जोड़ा जाय, गरीबी रेखा को पुर्नपरिभाषित कर एक सम्मानजनक स्थिति तक लाया जाय, शिक्षा सबके लिए एक समान और सुलभ हो. लेकिन सरकार इन बुनियादी बातों को भूल एक ऐसा हवा महल खड़ा करने में लगी है जो एक झोंके में ही तहस नहस हो जाएगी. इस बात को जानते हुए भी कि अमेरिका जैसा देश और कई यूरोपीय देष जिस आर्थिक मंदी से दहल उठे थे, उसका ज्यादा असर हमारे देश में सिर्फ इसलिए नहीं हुआ था कि यहां की अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक क्षेत्र का दबदबा है. इसके बाद भी सरकार इन सार्वजनिक क्षेत्र में मुनाफे की लूट के लिए जबरन विदेशी निवेशकों को ला रही है जिसका भविष्य में नकारात्मक असर देखा जाएगा. दूसरी ओर हमारे यहां वेतन मंे भी काफी विसंगतियां है. एक तरफ सरकारी पदों में लाखों का भी वेतन है तो वहीं कई सरकारी क्षेत्र मसलन शिक्षा, स्वास्थय में वेतन के नाम पर नाम मात्र का मानदेय दिया जाता है औज्ञर ठेका प्रथा, आॅटर्सोसिंग के माध्यमों से कम वेतन पर काम कराया जाता है. नीजि क्षेत्र को तो सरकार इतना छूट देने जा रही है कि वहां मजदूरों के लिए अपनी मांग उठाना भी अपराध हो जाएगा. आज केन्द्र सरकार मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, मुद्रा बैंक, कृषि बीमा पर लाख अपना सीना पीट ले लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह वही सरकार है जिसके मुखिया चुनाव पूर्व सीना ठोक कर सभी के खाते में 15 लाख देने की बात कर रहे थें. लेकिन सत्ता में आते ही सारा काला धन सफेद हो गया.
औक्सफैम की रिपोर्ट पर कुछ एक - दो चैनलों को छोड़ ज्यादातर चैनलों से गंभीर चर्चा की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है लेकिन इस रिपोर्ट से मुह भी नहीं फेरा जा सकता है. आज हम भले ही देश को एक उभरते हुए वैश्विक शक्ति के रूप में पेश करें लेकिन सच्चाई यही है कि यह चेहरा सिर्फ एक प्रतिशत लोगों का है 99 प्रतिशत लोगों का वास्तविक चेहरा दिखाने में सरकरों को शर्म आती है............लेकिन ये आंकड़े आंख खोलने वाले भी है. हमें समझना होगा कि दुनियां समेत भारत जैसे देष में एक प्रतिषत लोगों का ना तो कोई र्धम है, ना ही कोई जाति और ना ही वे किसी क्षेत्र विषेष का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका तो बस एक ही धर्म है और वह है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा. लेकिन 99 प्रतिषत लोग धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर बंटे हैं और सरकारें इन्हें बांट कर रखना भी चाहती है. लोग गरीबी के आंकड़ों पर ज्यादा माथापच्ची न करें इसके लिए सरकारें समय-समय पर ऐसे मुद्दे उछालती रहती है जिसका कि हमारी रोजी-रोटी, एक बेहतर जीवन से कोई मतलब नहीं है और ना ही जिनका कोई अर्थपूण तार्किक आधार होता है. बहरहाल जो भी हो इन आंकड़े ने एक प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत के बीच एक लकीर खींच दी है. जरूरत है इसका मुकाबला करने का और साहस कर यह कहने का कि कुछ तो शर्म करो !
शशिकान्त सिंह.
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