कोरपोरेट बनाम आम जनता
शशिकांत
15वीं लोकसभा के लिए सम्पन्न हुए चुनावों में कांग्रेस व उसके गठबंधन की जीत के बाद मिडीया जगत और राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा अलग-अलग नजरिए और सोच से प्रतिक्रियाएं दी जा रही है. जैसा कि अक्सर होता है कांग्रेस - मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का स्तुतिगान आरंभ हो चुका है. लेकिन, देश की मिडीया जगत और जाने माने विश्लेषकों द्वारा त्वरित प्रतिक्रियाओं में एक बात उभर कर सामने नहीं आयी और वो है, कि क्या ? इस चुनाव परिणामों के बाद यह मान लिया जाए कि देश की जनता उन आर्थिक नितियों के पक्ष में खड़ी हो गई है जिनके पक्ष में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मांेटेक सिंह आहलूवालिया और पी. चितबंरम की तिकड़ी ने देश की पूरी अर्थव्यवस्था को अमेरिकी अर्थनीतियों के अनुकूल बनाने का भरसक प्रयास किया है.
बहरहाल, यह जनादेश देश में 5 वर्षों के लिए एक स्थायी व धर्मनिरपेक्ष सरकार के लिए है इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता. देश में लगातार बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियां, साम्प्रदायिक घटनाएं, क्षेत्रियतावाद के रूझानों और छोटे दलों का बिना किसी जनमुद्दों के केन्द्र में सरकार को ब्लैकमेल करना, इस तरह की नौटंकियों से देश की जनता उब चुकी थी और वह हालात में बदलाव के पक्षधर थी. इस बात से भी इंकार नहीं किया सकता कि तीसरे मोर्चे को लेकर लोगों के अंदर एक स्वाभाविक शंका थी और इसके लिए पूर्व के अनुभव जिम्मेवार हैं. लेकिन साथ ही इस बार वाम के नेतृत्व में आगे बढ़ी तीसरे मोर्चे के कारण ही यह संभव हो पाया कि पूरे देश में साम्प्रदायिक ताकतें कमजोर हुयीं हैं और देश की संसद से साम्प्रदायिक शक्तियों को एक बड़े दायरे में दूर रखना संभव हो पाया है.
हमें यहां इस बात को समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस के निकम्मेपन और नर्म हिन्दुत्व की लाइन के कारण ही हाल के दिनों में देश के अन्दर उड़ीसा के कंधमाल और कर्नाटक जैसी घटनाओं में इजाफा हुआ था. उड़ीसा मंे जैसे ही बिजू जनता दल का भाजपा से टकराव तेज हुआ तो वाम दलों ने तुरंत बिजू जनता दल को अपने पक्ष में मोड़ने का जो प्रयास किया उसके कारण ही यह संभव हो पाया कि लोकसभा चुनाव के साथ ही उड़ीसा में हुए विधानसभा चुनावों में भी वहां भाजपा की ताकत काफी कम हो गई. तो अब क्या इन सब के लिए कांग्रेस की पीठ थपथपायी जाए! जहां वाम की बात है तो पिछले जनादेश में वाममोर्चे की सबसे बड़ी घटक सीपीआई (एम) को 5.66 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था वहीं इस बार उसे 5.52 प्रतिशत मत आया है इसलिए यह कतई नहीं समझना चाहिए कि वाम दलों को इस चुनाव में कोई बहुत बडा नुकासान उठाना पड़ा है. जहां तक बंगाल में ममता के उदय की बात है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह वही ममता है जो कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के नावों पर सवार होती रही है. ममता की नजर सिर्फ बंगाल की कुर्सी पर है और इसके लिए वह कोई भी समझौता और गठबंधन करने के लिए तैयार हो सकती है. इस चुनाव परिणमों को ममता के लिए कोई बड़ी जीत भी नहीं कहा सकता है. सिंगूर - नंदीग्राम के मसले को जिस तरह से पेश किया जाता रहा है वह अवसरवादी राजनीति का ओछापन के सिवा और कुछ भी नहीं है. इस तरह तो इस देश के अंदर गुजरात के मोदीराज को भी कभी पेश नहीं किया गया है और देश की जानी मानी लेखिका महाश्वेता देवी भी यह कहती नजर आती हंै कि बंगाल से बेहतर तो गुजरात का मोदीराज है! तो क्या इसे ही सच मान लिया जाए. हम यह क्यों भूल जाते हैं कि बंगाल देश का पहला राज्य जहां बड़े पैमाने पर भूमी सुधार हुएं हैं और आज अगर वहां के किसानों के पास जमीेनेें हैं तो वह वाम दल के शासन के कारण ही. यदि वाम दल अब बंगाल के बेरोजगारों के लिए औद्योगिक विकास की बात कर रही है तो इसमें बुरा क्या है ? यदि हम झारखंंड और बिहार जैसे राज्यों से तुलना करें तो यहां हालात क्या इै यह इम सभी देख रहें हैं. इन दोनो राज्योें में सांमती ताकतें आज यहां की सत्ता में बिराजमान है. दोनों राज्यों मंे भूमि सुधार तो दूर की बात है, भूख, पलायन, बेकारी और अशिक्षा इन दोनों राज्यों का एक बड़ा मुद्दा है. महाराष्ट्र और आंध्रपेदश जैसे राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं की खबरें लगातार आती रहीं है और पूरी दुनिया में देश को शर्मसार करती रही है. छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आदिवसियों की हालत आज भी आदिम युग जैसी है. यदि त्रिपुरा को छोड़ दें तो पूरा पूर्वांचल आज अशांत है और इरोन शर्मिला जैसी युवा महिला को पिछले कई वर्षों से अन्याय के खिलाफ लगातार अनशन करना पड़ रहा है. काश्मीर आशंात है, यूपी में बाहुबलियों का राज है. तो क्या यह मान लिया जाए कि अब हालात बदलेंगे. सवाल यह है कि देश में पिछले 60 वर्षों से कांग्रेस का शासन रहा है और वह जिस रास्ते पर चल रही है उससे देश की हालात में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ तो आज मनमोहन सिंह के हाथ में ऐसा कोैन सा अल्लादीन का चिराग मिल गया कि अचानक देश के हालात बदल जाएंगे. झारखंड का एक युवा आदिवासी लेखक जब इन चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत से अतिउत्साहित होकर कांग्रेस का स्तुती गान करता है तो इस बात का अफसोस होेता है कि वह यह कैसे भूल गया कि यह वहीं काग्रेस है जिसकी नितियों के कारण आज झारखंड विस्थापन, पलायन और पिछड़ेपन में जीने के लिए मजबूर है और इसलिए ही झारखंड की जनता ने कांग्रेस को ठुकराकर भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी को ही बेहतर समझा! वह यह कैसे भूल गया कि वह खुद भी विस्थापन और दमन के खिलाफ चल रहे आंदोलन में कभी खुद को भी खड़ा पाता है. और उसे इतना भी याद नहीं कि हमारे देश में जितने भी बड़े दंगे हुयें हैं वो कांग्रेस के शासन में ही हुएं हैं. तो क्या यह लेखनी और सोच का अवसरवादिता नहीं है? मैं यह मान सकता हूॅं कि देश के अन्दर भाजपा का विकल्प कांग्रेस हो सकता है लेकिन साम्प्रदायिकता का विकल्प कांग्रेस है कि नहीं इस पर बात होनी चाहिए और बहस केन्द्रीत होनी चाहिए. वैसे जनादेश 2009 के संदर्भ में चाहे जितना भी विश्लेषण किया जाए इसका निष्कर्ष अन्ततः यही है कि यह चुनाव कोरपोरेट जगत की आगामी 5 वर्षों के लिए स्थाई जीत है और यह कहने में हमें किसी तरह की झिझक का सामना नहीं करना चाहिए. भारत - अमेरिका परमाणु करार, आर्थिक मंदी, महंगाई जैसे देश के स्वाभिमान और आम जन से जुड़े सवाल इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बन पाया तो वह देशी विदेशी कोरपोरेट सेक्टर द्वारा पूरे प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मिडीया जगत को हईजैक कर लेने के कारण ही संभव हो पाया है. हमें साथ में इस बात को याद रखना चाहिए कि आज कांग्रेस जिस नरेगा, वन अधिकार कानून, 6ठा वेतनमान् जैसे कदमों को अपनी पहल बता रही है वह दरअसल केन्द्र में पिछले साढ़े चार वर्षों में वाम दलों के दबाव के कारण ही संभव हो पाया है. यदि जनहित के प्रति हमारे अन्दर थोड़ी सी भी इमानदारी है तो हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए. मनमोहन सरकार ने अमेरिका में आये आर्थिक मंदी से सबक लेने के बाजाए देश को उन्हीं नीतियों की ओर अग्रसर करने का लगातार प्रयास किया है जिनके कारण आज अमेरिका की बड़ी आबादी दुर्दशा की शिकार हुई है. यदि आज हमारा देश वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट में पूरी तरह से आने से बचा रहा है तो उसका कारण है कि देश के वित्तिय संस्थानों पर सार्वजनिक निगमों का नियंत्रण है. सरकार इस नियंत्रण को अब नीजि हाथों की ओर धकेल रही है जिसका परिणाम वही होगा जो अमेरिका में दिखा और खरबों का पेंशन राशि डूब गया, लाखों लोग बेरोजगार हो गयें और यह सिलसिला अभी और जारी है. यह जमा पूंजी अमेरिका के उस मध्य वर्ग का था जो सरकारी दफ्तरों में नौकरी करते हैं और देश की बड़ी आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं. आज हमारे यहां भी मुनाफे में चल रही सार्वजनिक निगमों का नीजिकरण किया जा रहा है, बीमा- बैंक को नीजि हाथों में सौंपा जा रहा है और बात यहां तक बढ़ चुकी है कि हमारे पेंशन राशि को भी अब वैसी विदेशी नीजि कम्पनियां जिनका कि अपने ही देश में दिवाला निकल चुका है, अब नियंत्रण करेंगी वह भी अमेरिकी दबाव में ! अमेरिका के पीछे तो भारत जैसा देश है जिसके कंधे पर वह अपना बोझ लाद सकता है और भारत का बाजार है जहां वह अपना माल बेचकर मुनाफा कमा सकता है, लेकिन भारत किस देश को अपने ईशारे पर नचाकर अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के प्रयास करेगा? कांग्रेस की जीत से देश के आम आदमी के चहेरे पर खुशी आई है कि नहीं यह तो आने वाले समय में कांग्रेस की नीतियों के परिणाम तय करेंगे. लेकिन इस चुनाव में देशी -विदेशी कोरपोरेट सेक्टर ने भारत के आम लाचार और गरीब मतदाताओं को खरीदने के लिए जिस तरह पानी की तरह पैसा बहाया है वह लोकतंत्र के लिए कोई सुखद संदेश नहीं है. आज भारत समेत अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी देशों के कोरपोरेट घराने खुश हैं कि इस देश में जो सरकार बनी है उसे वे कठपुतली की तरह नचा सकते है और अपनी साम्राज्यवादी नितियों को लागू कर सकते हैं. साम्राज्यवादियों की एक नीति है कि जनता को उतना ही दो जिससे उसकी जरूरत बरकरार रहे और फिर जब जरूरत हो उसे कुछ और देकर अपने पक्ष में खरीद लो. बेशक आज इस नीति की जीत हुई है और आने वाला 5 वर्ष उन ताकतों के लिए जो साम्राज्यवाद के खिलाफ हैं और भारत में मुकम्मल बदलाव के पक्षधर हैं, उनके लिए चुनौतियों का समय है और उन्हें हर चुनौति के लिए हमेशा तैयार रहना होगा. यही एक गरीब मुल्क की आम जनता की कराह है जो एक दिन बेशक एक मजबूत और निर्णायक आवाज बनकर उभरेगी. और अन्त में सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि भारत का जो पैसा स्वीस बैक में जमा है उसके बारे में देश की जनता के समक्ष कांग्रेस को जरूर जवाब देना चाहिए.
बहरहाल, यह जनादेश देश में 5 वर्षों के लिए एक स्थायी व धर्मनिरपेक्ष सरकार के लिए है इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता. देश में लगातार बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियां, साम्प्रदायिक घटनाएं, क्षेत्रियतावाद के रूझानों और छोटे दलों का बिना किसी जनमुद्दों के केन्द्र में सरकार को ब्लैकमेल करना, इस तरह की नौटंकियों से देश की जनता उब चुकी थी और वह हालात में बदलाव के पक्षधर थी. इस बात से भी इंकार नहीं किया सकता कि तीसरे मोर्चे को लेकर लोगों के अंदर एक स्वाभाविक शंका थी और इसके लिए पूर्व के अनुभव जिम्मेवार हैं. लेकिन साथ ही इस बार वाम के नेतृत्व में आगे बढ़ी तीसरे मोर्चे के कारण ही यह संभव हो पाया कि पूरे देश में साम्प्रदायिक ताकतें कमजोर हुयीं हैं और देश की संसद से साम्प्रदायिक शक्तियों को एक बड़े दायरे में दूर रखना संभव हो पाया है.
हमें यहां इस बात को समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस के निकम्मेपन और नर्म हिन्दुत्व की लाइन के कारण ही हाल के दिनों में देश के अन्दर उड़ीसा के कंधमाल और कर्नाटक जैसी घटनाओं में इजाफा हुआ था. उड़ीसा मंे जैसे ही बिजू जनता दल का भाजपा से टकराव तेज हुआ तो वाम दलों ने तुरंत बिजू जनता दल को अपने पक्ष में मोड़ने का जो प्रयास किया उसके कारण ही यह संभव हो पाया कि लोकसभा चुनाव के साथ ही उड़ीसा में हुए विधानसभा चुनावों में भी वहां भाजपा की ताकत काफी कम हो गई. तो अब क्या इन सब के लिए कांग्रेस की पीठ थपथपायी जाए! जहां वाम की बात है तो पिछले जनादेश में वाममोर्चे की सबसे बड़ी घटक सीपीआई (एम) को 5.66 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था वहीं इस बार उसे 5.52 प्रतिशत मत आया है इसलिए यह कतई नहीं समझना चाहिए कि वाम दलों को इस चुनाव में कोई बहुत बडा नुकासान उठाना पड़ा है. जहां तक बंगाल में ममता के उदय की बात है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह वही ममता है जो कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के नावों पर सवार होती रही है. ममता की नजर सिर्फ बंगाल की कुर्सी पर है और इसके लिए वह कोई भी समझौता और गठबंधन करने के लिए तैयार हो सकती है. इस चुनाव परिणमों को ममता के लिए कोई बड़ी जीत भी नहीं कहा सकता है. सिंगूर - नंदीग्राम के मसले को जिस तरह से पेश किया जाता रहा है वह अवसरवादी राजनीति का ओछापन के सिवा और कुछ भी नहीं है. इस तरह तो इस देश के अंदर गुजरात के मोदीराज को भी कभी पेश नहीं किया गया है और देश की जानी मानी लेखिका महाश्वेता देवी भी यह कहती नजर आती हंै कि बंगाल से बेहतर तो गुजरात का मोदीराज है! तो क्या इसे ही सच मान लिया जाए. हम यह क्यों भूल जाते हैं कि बंगाल देश का पहला राज्य जहां बड़े पैमाने पर भूमी सुधार हुएं हैं और आज अगर वहां के किसानों के पास जमीेनेें हैं तो वह वाम दल के शासन के कारण ही. यदि वाम दल अब बंगाल के बेरोजगारों के लिए औद्योगिक विकास की बात कर रही है तो इसमें बुरा क्या है ? यदि हम झारखंंड और बिहार जैसे राज्यों से तुलना करें तो यहां हालात क्या इै यह इम सभी देख रहें हैं. इन दोनो राज्योें में सांमती ताकतें आज यहां की सत्ता में बिराजमान है. दोनों राज्यों मंे भूमि सुधार तो दूर की बात है, भूख, पलायन, बेकारी और अशिक्षा इन दोनों राज्यों का एक बड़ा मुद्दा है. महाराष्ट्र और आंध्रपेदश जैसे राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं की खबरें लगातार आती रहीं है और पूरी दुनिया में देश को शर्मसार करती रही है. छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आदिवसियों की हालत आज भी आदिम युग जैसी है. यदि त्रिपुरा को छोड़ दें तो पूरा पूर्वांचल आज अशांत है और इरोन शर्मिला जैसी युवा महिला को पिछले कई वर्षों से अन्याय के खिलाफ लगातार अनशन करना पड़ रहा है. काश्मीर आशंात है, यूपी में बाहुबलियों का राज है. तो क्या यह मान लिया जाए कि अब हालात बदलेंगे. सवाल यह है कि देश में पिछले 60 वर्षों से कांग्रेस का शासन रहा है और वह जिस रास्ते पर चल रही है उससे देश की हालात में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ तो आज मनमोहन सिंह के हाथ में ऐसा कोैन सा अल्लादीन का चिराग मिल गया कि अचानक देश के हालात बदल जाएंगे. झारखंड का एक युवा आदिवासी लेखक जब इन चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत से अतिउत्साहित होकर कांग्रेस का स्तुती गान करता है तो इस बात का अफसोस होेता है कि वह यह कैसे भूल गया कि यह वहीं काग्रेस है जिसकी नितियों के कारण आज झारखंड विस्थापन, पलायन और पिछड़ेपन में जीने के लिए मजबूर है और इसलिए ही झारखंड की जनता ने कांग्रेस को ठुकराकर भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी को ही बेहतर समझा! वह यह कैसे भूल गया कि वह खुद भी विस्थापन और दमन के खिलाफ चल रहे आंदोलन में कभी खुद को भी खड़ा पाता है. और उसे इतना भी याद नहीं कि हमारे देश में जितने भी बड़े दंगे हुयें हैं वो कांग्रेस के शासन में ही हुएं हैं. तो क्या यह लेखनी और सोच का अवसरवादिता नहीं है? मैं यह मान सकता हूॅं कि देश के अन्दर भाजपा का विकल्प कांग्रेस हो सकता है लेकिन साम्प्रदायिकता का विकल्प कांग्रेस है कि नहीं इस पर बात होनी चाहिए और बहस केन्द्रीत होनी चाहिए. वैसे जनादेश 2009 के संदर्भ में चाहे जितना भी विश्लेषण किया जाए इसका निष्कर्ष अन्ततः यही है कि यह चुनाव कोरपोरेट जगत की आगामी 5 वर्षों के लिए स्थाई जीत है और यह कहने में हमें किसी तरह की झिझक का सामना नहीं करना चाहिए. भारत - अमेरिका परमाणु करार, आर्थिक मंदी, महंगाई जैसे देश के स्वाभिमान और आम जन से जुड़े सवाल इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बन पाया तो वह देशी विदेशी कोरपोरेट सेक्टर द्वारा पूरे प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मिडीया जगत को हईजैक कर लेने के कारण ही संभव हो पाया है. हमें साथ में इस बात को याद रखना चाहिए कि आज कांग्रेस जिस नरेगा, वन अधिकार कानून, 6ठा वेतनमान् जैसे कदमों को अपनी पहल बता रही है वह दरअसल केन्द्र में पिछले साढ़े चार वर्षों में वाम दलों के दबाव के कारण ही संभव हो पाया है. यदि जनहित के प्रति हमारे अन्दर थोड़ी सी भी इमानदारी है तो हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए. मनमोहन सरकार ने अमेरिका में आये आर्थिक मंदी से सबक लेने के बाजाए देश को उन्हीं नीतियों की ओर अग्रसर करने का लगातार प्रयास किया है जिनके कारण आज अमेरिका की बड़ी आबादी दुर्दशा की शिकार हुई है. यदि आज हमारा देश वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट में पूरी तरह से आने से बचा रहा है तो उसका कारण है कि देश के वित्तिय संस्थानों पर सार्वजनिक निगमों का नियंत्रण है. सरकार इस नियंत्रण को अब नीजि हाथों की ओर धकेल रही है जिसका परिणाम वही होगा जो अमेरिका में दिखा और खरबों का पेंशन राशि डूब गया, लाखों लोग बेरोजगार हो गयें और यह सिलसिला अभी और जारी है. यह जमा पूंजी अमेरिका के उस मध्य वर्ग का था जो सरकारी दफ्तरों में नौकरी करते हैं और देश की बड़ी आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं. आज हमारे यहां भी मुनाफे में चल रही सार्वजनिक निगमों का नीजिकरण किया जा रहा है, बीमा- बैंक को नीजि हाथों में सौंपा जा रहा है और बात यहां तक बढ़ चुकी है कि हमारे पेंशन राशि को भी अब वैसी विदेशी नीजि कम्पनियां जिनका कि अपने ही देश में दिवाला निकल चुका है, अब नियंत्रण करेंगी वह भी अमेरिकी दबाव में ! अमेरिका के पीछे तो भारत जैसा देश है जिसके कंधे पर वह अपना बोझ लाद सकता है और भारत का बाजार है जहां वह अपना माल बेचकर मुनाफा कमा सकता है, लेकिन भारत किस देश को अपने ईशारे पर नचाकर अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के प्रयास करेगा? कांग्रेस की जीत से देश के आम आदमी के चहेरे पर खुशी आई है कि नहीं यह तो आने वाले समय में कांग्रेस की नीतियों के परिणाम तय करेंगे. लेकिन इस चुनाव में देशी -विदेशी कोरपोरेट सेक्टर ने भारत के आम लाचार और गरीब मतदाताओं को खरीदने के लिए जिस तरह पानी की तरह पैसा बहाया है वह लोकतंत्र के लिए कोई सुखद संदेश नहीं है. आज भारत समेत अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी देशों के कोरपोरेट घराने खुश हैं कि इस देश में जो सरकार बनी है उसे वे कठपुतली की तरह नचा सकते है और अपनी साम्राज्यवादी नितियों को लागू कर सकते हैं. साम्राज्यवादियों की एक नीति है कि जनता को उतना ही दो जिससे उसकी जरूरत बरकरार रहे और फिर जब जरूरत हो उसे कुछ और देकर अपने पक्ष में खरीद लो. बेशक आज इस नीति की जीत हुई है और आने वाला 5 वर्ष उन ताकतों के लिए जो साम्राज्यवाद के खिलाफ हैं और भारत में मुकम्मल बदलाव के पक्षधर हैं, उनके लिए चुनौतियों का समय है और उन्हें हर चुनौति के लिए हमेशा तैयार रहना होगा. यही एक गरीब मुल्क की आम जनता की कराह है जो एक दिन बेशक एक मजबूत और निर्णायक आवाज बनकर उभरेगी. और अन्त में सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि भारत का जो पैसा स्वीस बैक में जमा है उसके बारे में देश की जनता के समक्ष कांग्रेस को जरूर जवाब देना चाहिए.
shashikant.
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